2000 साल पुराना है बनारसी साड़ी का इतिहास

बनारसी साड़ी का इतिहास
इतिहास के पन्नों को पलटें तो पता चलता है कि बनारसी रेशमी साड़ी का उल्लेख जातक कथाओं में मिलता है। ऐसा माना जाता है कि हिंदू देवी-देवता भी रेशमी कपड़े का इस्तेमाल करते थे और यह रेशम गंगा के किनारे पाए जाने वाले रेशम के कीड़ों से तैयार किया जाता था और इससे बने कपड़े देवी-देवताओं को पहनाए जाते थे। शायद यही कारण है कि हिन्दू धर्म में रेशमी वस्त्रों को विशेष महत्व दिया गया है, विशेषकर बनारसी रेशम का एक अलग ही महत्व है।
वैसे इतिहास में यह भी उल्लेख मिलता है कि भारत से पहले रेशम का काम सबसे पहले चीन में अस्तित्व में आया और फिर भारत में रेशम का काम गंगा के किनारे बसे नगरों में जाना जाता था।
बनारसी रेशम को मुगल सम्राट अकबर के शासनकाल के दौरान भारत में अधिकतम पहचान मिली। उस समय, रेशमी कपड़ों पर सोने और चांदी के धागों से काम किया जाता था, जिससे वे बेशकीमती हो जाते थे और केवल राजघरानों तक ही सीमित थे। इन रेशमी कपड़ों से राजा-महाराजा और उनके परिवार के सदस्यों के कपड़े बनाए जाते थे।also read:आदमी की हैसियत उसके जूतों से पता लगती है,जानिए जूतों की इन टॉप ब्रांड्स के बारे में
बनारसी रेशम का नाम कैसे पड़ा?
बनारसी रेशमी साड़ियां और कपड़े ज्यादातर मुबारकपुर, मऊ और खैराबाद स्थित फैक्ट्रियों में बनते हैं। पहले तो ऐसा ही होता था, लेकिन इन कपड़ों और साड़ियों को बेचने के लिए व्यापारियों को बनारस के बाजार तक आना पड़ता था. इसलिए इस रेशम का नाम बनारसी पड़ा, जबकि आज भी वाराणसी में न तो कारीगर हैं और न ही रेशमी कपड़े या साड़ी बनाने वाले कारखाने हैं।
बनारसी साड़ी की खासियत
बनारसी साड़ी की सबसे बड़ी खासियत होती है इस पर जरी का काम। पहले ज़री का काम सोने या चांदी के तारों से किया जाता था। आमतौर पर साड़ी के पल्लू या बॉर्डर पर चांदी या सोने के तार से ज़री का काम किया जाता था। हालांकि, आधुनिकता, बढ़ती महंगाई और ग्राहकों की मांग के चलते अब इस बनारसी सिल्क साड़ी पर जरी का काम सोने या चांदी के तार से नहीं बल्कि सामान्य धातु के तार से किया जाता है।